बस्तर का इतिहास जानना हो तो उसके मुख्य स्रोतों का अध्ययन करना जरूरी हो जाता है। इनमें अभिलेख और शिलालेख हैं
इसीलिए मैने सोचा जो इतिहासकार है उनकी रचनाओं को जिला ग्रंथालय और दूसरे सो्रतों से खंगाला जाए और आप तक पहँुचाया जाय तो जो निचोड़ निकलकर आया है उसे आपसे बांटना जरूरी समझा । तो शुरू करते हैं इसके नामकरण को लेकर कि बस्तर को बस्तर ही क्यों कहा जाता है।
। तो शुरू करते हैं इसके नामकरण को लेकर कि बस्तर को बस्तर ही क्यों कहा जाता है।
क्यों कहते हैं इसे बस्तर ?
इसके पीछे कुछ कहांनियां ही निकल कर आई हैं एक कहानी के अनुसार चूंकि बांस के नीचे लोग निवास करते थे । तो लोगों को बांस-तल कहा जाने लगा और आगे चलकर यह शब्द बस्तर बन गया । जबकि दूसरी कहानी में यह सुनने में आती है जब देवी दंतेश्वरी को यह ज्ञात हुआ कि काकतीय राजा उनकी शरण में आया तो देवी ने राजा से कहा कि वह आगे आगे चले देवी खुद राजा का अनुशरण करेंगी। और मेरी घुंघरूओं की आवाज से मेरी मौजूदगी का पता चलेगा। मगर पीछे मुड़कर न देखेअन्यथा वह वहीं स्थिर हो जाएंगी। और यही हुआ । शंखनी-डंखनी नदी के संगम पर रेत में देवी के घुघरूओं पर रेत आ गया और घंघरू बजने बंद हो गए। तो राजा ने पीछे मुड़कर ये देखने की कोशिश की कि देवी है या नहीं और फिर देवी वहीं स्थिर हो गयीं और फिर देवी ने अपने वस्त्र फैला दिए जो विशाल भूभाग बन गए। यही भू-भाग वस्त्र और आगे चलकर बस्तर कहलाने लगा। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि विशाल भूभाग का विस्तार होने के कारण यह विस्तार बस्तर कहलाने लगा।
बस्तर की राजधानियां
चक्रकोट के प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव के समय से ही बस्तर की राजधानियां बदलती रहीं । पहली राजधानी कुछ समय तक बारसूर में थी। वहाँ से दंतेवाड़ा और फिर मधोता राजधानी बनी ।
फिर कुरूसपाल, राजपुर और बड़े डोंगर आदि से होकर बस्तर इसकी राजधानी स्थिर हो गई। सन 1703 में दिक्कपालदेव के समय चक्रकोट से बस्तर में राजधानी बनायी गई। दलपत देव तक बस्तर यहाँ की राजधानी थी। और 1772 में यह राजधानी जगतुगुड़ा यानि जगदलुपर आ गई। क्योंकि जगतु ने महाराजा से ये गुहार लगायी थी कि उसके कबीले को जंगली जानवरों से मुक्त करा दें । तो उस सरदार के नाम से यह जगतुगुड़ा जगदलपुर बन गया । - कहानी जैसे भी हो - है न मजेदार
अन्नमदेव (1324 से 69) तक के बाद काकतिय राजाओं के नाम जिन्होंने बस्तर में शासन किया
2. हमीर देव (1369-1410)
3. भैरव देव (1410 - 68)
4. पुरूषोत्तमदेव (1468- 1534)
5. जयदेव सिंह (1534-58)
6. नरसिंह देव (1558-62)
7. प्रतापराजदेव ( 1602 -25)
8. जगदीशराजदेव (1625-39)
9. वीरनारायण देव (1639-54)
10. वीरसिंह देव (1654-80)
11. दिक्पाल देव (1680-1709)
12. राजपाल देव (1709-21)
13. चंदेलमामा (1721-31) ये चंदेल वंश के राज थे
14. दलपत देव (1731-74)
15. अजमेरसिंह (1774-77)
भोंसलों के अधीन राजा दरियावदेव के समय बस्तर भोंसलों के अधीन 1780 में करदराज्य बन गया था और 1853 तक मराठा भोंसलों के अधीनता में निम्मनलिखित काकतीय राजा हुए ।
16. दरियावदेव (1777- 1800)
18. भूपाल देव (1842-53)
फिर ब्रिटिश राज में ब्रिटिश अधीनता स्वीकार करने वाले काकतीय राजाओं के नाम इस प्रकार हैं
19 भैरमदेव (1853-91)
20. रूद्रप्रताप देव (1891-1921)
21. महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-36) जिनके नाम से जिला अस्पताल की स्थापना जगदलपुर में हुई
22. प्रवीर चंद भंजदेव
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1948में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया । आजादी के बाद भारत में काकतीय राजाआंे के नाम इस प्रकार हैं जिन्हें बस्तर की जनता श्रद्धा पूर्वक राजा मानती है।
23. प्रवीरचंन्द्र भंजदेव (1947-61)
24. विजय चंन्द्र भंजदेव (1961-69)
25. भरतचन्द्र भंजदेव (1969-96)
26. कमलचंन्द्र भंजदेव (1997 से अब तक )
अन्नमदेव (1324 से 69)
1324 से 1780 तक काकतीय राजाओं ने बस्तर में राज किया । अन्नमदेव ने बारसूर में काकतीय वंश की स्थापना के पश्चात् 1936 तक इसकी 20 पीढ़ियों ने 613 वर्षों तक राज किया । जानते हैं बस्तर के महाराजाओं और उनके जीवन चक्र के बारे में ,अन्नमदेव दंतेवाड़ा अभिलेख में अन्नमदेव को अन्नमराज कहा गा है । जो प्रतापरूद्रदेव का छोटा भाई था। अन्नमदेव 1324 में वारंगल छोड़कर बस्तर पहुँचा । वारंगल अन्नमदेव को क्यों छोड़ना पड़ा इस बारे में इतिहास कारों में अलग-अलग विचार हैं । इतिहासकारों का कहना है कि वारंगल में होने वाले लगातार मुस्लिम आक्रमणों के कारण अन्नमदेव वारंगल छोड़कर बीजापुर के रास्ते से बस्तर आए और छोटे छोटे राज्यों जीतकर यहाँ के अधिपति बन गए। जिस समय वे बस्तर के राजा बने उस समय उनकी आयु महज 32 वर्ष थी। उसकी पत्नि का नाम सोनकुमर चंदेली था। एक साल बारसूर में रहने के बाद राजा अन्नमदेव ने अपनी राजधानी दंतेवाड़ा बना ली। अन्नमदेव के बाद बस्तर के राजा अपने आपको चंद्रवंशी कहलाने लगे। हल्बी भतरी लोकगीतों में अन्नमदेव को चालकी बंस राजा कहा है।
33 वर्ष की उम्र में हमीर देव ने बस्तर की सत्ता संभाली। हमीर देव अन्नमदेव के उत्तराधिकारी हमीरदेव को हमीरूदेव या एमीराजदेव भी कहा गया है। हमीर देव के बारे में विस्तृत जानकारी उड़िसा के इतिहास से भी प्रापत होती है।
भैरवदेव (1410 - 68)
जयरजदेव तथा भैरवदेव एक ही शासक के नाम है। इनकी दो रानियां थी। एक मेघई अरिचकेलिन अथवा मेघावती आखेट विद्या में निपुण थी, जिसकी स्मृति चिन्ह मेघी साड़ी, मेघई गोहड़ी प्रभृति (शकटिका )आज भी बस्तर में है।
पुरूषोत्तम देव (1468- 1534)
भेरवदेव के पुत्र पुरूषेत्तमदेव ने 25 वर्ष की उम्र में बस्तर के राजा बने । रानी का नाम कंचनकुवरि बघेलिन था ।
कहा जाता है। कि पुरूषोत्तम पेट के बल रेंगते हुए वे जगन्नाथ पुरी पहुँचे और भगवान को रत्नाभूषण आदि की भेंट चढ़ाई । पूरी के राजा ने पुरूषोत्तम देव का स्वागत किया और राजा की वापसी के समय सोलह पहियों वाला रथ प्रदान कर उन्हें रथपति की उपाधि दी । लौटकर राजा ने बस्तर में रथयात्रा की शुरूआत की । यह पर्व ही बस्तर में गोंचा के रूप में मनाया जाता है। पुरूषोत्तम देव ने अपनी राजधानी मघोता छोडकर बस्तर में अपनी राजधानी बनाई।
जययसिंह देव (1534-58)
पुरूषोत्तमदेव का पुत्र जयसिंहदेव या जैसिंदेव 24 साल की अवस्था में राजगद्दी सम्भाली। उनकी पत्नि का नाम चंद्रकँवर बघेलिन था।
वैसे ही नरसिंहदेव ने 23 वर्ष की अवस्था में बस्तर के महाराजा बने। उनकी रानी बड़ी उदार मनोवृत्ति की थी। उसने बस्तर में अनेक तालाबों का निर्माण किया था।
प्रतापराज देव ( 1602 -25)
प्रतापराज देव के बारे में चर्चा करते हैं वे भी बड़े प्रतापी राजा थे। गोलकुण्डा के मुहम्मद कुल कुतुबशाह की सेना ने बस्तर पर आक्रमण किया था । कुतुब शाह की सेना बुरी तरह से हार गई । फिर कुतुबशाह अहमद नगर के मलिकंबर की मदद से बस्तर रियासत को परेशान करने लगा । उसने जैपुर नरेश की सहायता से जैपुर से ले बस्तर को कुछ क्षेत्रों में कब्जा जमाने में कामयाबी भी मिली ।
जगदीश राजदेव (1625-39) और वीरनारायण देव (1639-54)
इनके समय में भी गोकुण्डा के अब्दुल्ला कुतुबशाह द्वारा जैपुर की तरफ से बस्तर में कई आक्रमण हुए। मगर वे सभी असफल हुए। और मुगल इसके बाद बस्तर में कभी भी आक्रमण करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। और बस्तर हमेशा से मुगलों की पहुँच से दूर रहा।
वीर सिंह देव (1654-80)
ये भी बड़ा ही पराक्रमी राजा था। जब वीरसिंह ने बस्तर की बागडोर संभाली तो उसकी उम्र केवल 12 वर्ष की थी। उसकी रानी का नाम बदनकुंवर चंदेलिन था। राजा वीरसिंहदेव बड़ा उदार और धर्मिक प्रवृत्ति का था। उसने उदारता का अभूतपूर्व परिचय दिया। उसने अपने शासन काल में राजपुर स्थित किले का निर्माण कराया।
दिक्पालदेव (1680-1709)
1703 में दिक्पाल देव के समय बस्तर राजधानी बनी और राजपाल देव उसके बेटे का नाम था जिसने (1709 से 21 )तक शासन किया ।
राजपाल देव (1709 से 21 )रायपुर के महंत घासीदास-स्मारक संगहालय में रखे बस्तर के राजवंश से जुड़ी जानकारी मिलती है जो एक ताम्रपत्र में है। इससे पता चलता है कि राजा मणिकेश्वरी देवी का भक्त था और प्रौढ़प्रताप-चक्रवर्ती की उपाधि उसे मिली थी।
फिर चालुक्य शासन पर चंदेल मामा (चंदेल वंश 1721-31) का अधिकार हो गया जो कुछ समय तक ही था।
कौन हैं चंदेल मामा
यह राजपाल देव की पत्नि के भाई का नाम था। उसकी दो पत्नियां थीं एक का नाम था बघेलिन और दूसरी चंन्देलिन बघेलिन के पुत्र दखिनसिंह था तो चंन्दलिन का पुत्र का नाम दलपतदेव और प्रतापसिंह था। राजपाल देव की मृत्यु के बाद राजकुमारों के मामा ने राजसता हथिया ली और 10 सालों तक शासन किया। रक्षा बंधन के मौके पर दलपत देव राखी का नग लेकर दरबार में गया और चंदेल मामा की हत्या कर दी।
और दलपत देव ने अपना राज इस प्रकार वापस लिया । उसके शासन में बस्तर में मराठों का आक्रमण हुआ। 1707 में मराठा सेना ने नीलू पण्डित या नीलू पंत के नेतृत्व में बस्तर में आक्रमण किया । मगर वे सफल नहीं हो सके। दूसरे आक्रमण में बस्तर की सेना की हार हुई । मगर दलपत देव ने मराठों की अधीनता नहीं मानी। और वे जानबचाकर भाग गए ।
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