75 दिनों तक चलने वाली विश्व प्रसिद्व बस्तर दशहरा (Bastar Dussehra)पूरे शबाब पर होता हैै। सबसे खास बात तो यह है जो बस्तर दशहरे को खास बनाती है -बस्तर दशहरा में ना तो रावण दहन होता है और ना ही रामलीला का आयोजन। बस्तर दशहरा (Bastar Dussehra) पर्व के दौरान नवरात्रि में यहां बस्तर की अराध्य देवी आदिशक्ति मां दन्तेश्वरी की विधि-विधान के साथ पूजा की जाती है, और विशालकाय दो मंजिला चार पहियों वाली रथ में मांई जी छत्र के को विराजित कर खींचा जाता है। इस दौरान रथ में मां दन्तेश्वरी के पुजारी तथा राजपरिवार के सदस्य के अलावा राजगुरू भी विराजमान रहते हैं। इस दौरान 75 दिवसीय विश्वप्रसिद्व बस्तर दशहरा में अनेक महत्वपूर्ण रस्मों का निर्वहन किया जाता है जो इस प्रकार है। पाठ-जात्रा से प्रारंभ हुई पर्व की दूसरी रस्म को डेरी गड़ाई कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि मांई जी की विशेष कृपा के साथ-साथ पितरों की दयादृष्टि भी जोगी पर होती है।
बस्तर के दशहरा के संदर्भ में योगी ही जोगी की संज्ञा पाता है, जो दशहरा दर्शन में प्रमुख भूमिका तो निभाता है, किंतु रथ चालन का साक्षी और दशहरा समारोह का दर्शक नहीं होता, बल्कि इसकी आराधना-साधना एवं संकल्प को सम्मान देते स्थानीय सिरहासार में लोग जोगी का दर्शन करते हैं।
एक मान्यता के अनुसार कभी दशहरा के अवसर पर एक हलबा आदिवासी, दशहरा पर्व निर्विघ्न संपन्न होने की कामना को लेकर अपनी सुविधा के अनुसार योग साधना में लगातार 9 दिनों तक राजमहल के समीप बैठ गया था। कुछ समय के बाद वह योगी आकर्षण का केंद्र बन गया। उस योगी को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे और लोगों ने फूल और पैसों का चढ़ावा अर्पित कर ढेर कर दिया। राजा को जब इस बात का पता चला तो वे स्वयं भी इस योगी को देखने पहुंचे और नौ दिन तक दशहरा पर्व संपन्न होने के बाद राजा ने उस योगी को बहुत सारा पैसा, उपहार और अन्न देकर ससम्मान विदा किया, तब से ही योगी बिठाने की परंपरा कायम हुई, जिसे जोगी भी कहा जाता है। कालांतर में जोगी को बिठाने के लिए सिरहासार के मध्य का भाग चुना गया, तब से लेकर आज पर्यंत नौ दिनों तक योगासन की मुद्रा में जोगी बैठा रहता है। इस बीच जोगी फलाहार तथा दूध का सेवन करता है। परंपरानुसार जोगी बिठाई के बाद ही अगले दिन फूल रथ का परिचालन प्रारंभ होता है। पहली फूल रथ परिक्रमा के दौरान मां दंतेश्वरी के छत्र को दंतेश्वरी के पुजारी के द्वारा मंदिर से बाहर निकाला जाता है, जिसे मावली मंदिर ले जाकर पूजा उपरांत, जगन्नाथ मंदिर परिसर स्थित श्री रामचंद्र जी के मंदिर लाकर वहां पूजा पश्चात, जगन्नाथ मंदिर के उत्तर द्वार से रथ में आरूढ़ किया गया। परंपरा अनुसार रथ चालन से पूर्व पुलिस जवानों द्वारा मां दंतेश्वरी को तीन राउंड फायर कर सलामी दी जाती है। तत्पश्चात रथ का परिचालन प्रारंभ होता है। यहां से रथ आगे बढकर जगन्नाथ मंदिर के मुख्य द्वार पर लाकर रोका जाता है, जहां परंपरानुसार मालिन द्वारा फूल फेंककर फूल रथ का स्वागत किया जाता है। तत्पश्चात लाई से फूल रथ की नजर उतारे की परंपरा संपादित की जाती है। इन तमाम रस्मों के बाद पहली फूल रथ की परिक्रमा दंतेश्वरी मंदिर के सिंह द्वार पर रथ पहुंचने के साथ संपन्न हुई। इस दौरान जंगल में रानी को बैठाने के लिए आशन नहीं था तो वहां पर एक मचान बनाकर राजमाता रानी को बिठाया था। इस परम्परा के निर्वहन में आज भी जहंा रथ को चुराकर ले जाते हैं उस जंगल को कुम्हड़ा कोट कहा जाता है और वहां पर एक सांकेतिक रूप में मचान बनाया जाता है जिसे रानी मचान कहते है। इसके बाद राजा वहां पर नवाखानी मनाकर रथ में मां दंतेश्वरी के छत्र को आरूढ कर वापस सिंह ड्योढी लाया जाता है। इस दौरान दंतेश्वरी मांई की बहन मावली माता का छत्र रथ के आगे-आगे रहती है। इसे ही बस्तर दशहरा में बाहर रैनी कहा जाता है।
पाटजात्रा विधान
बस्तर दशहरे का शुभारंभ श्रावण मास की अमावश तिथि को पाट जात्रा विधान के साथ होती है। पाट जात्रा विधान (Paat Jatra)में बस्तर जिले के ग्राम बिलोरी के जंगल से लाये साले के लकड़ी का मां दन्तेश्वरी मंदिर के पास विशेष पूजा अर्चना किया गया। इस विधान में चना, लाई, मोंगरी मछली, अण्डे सहित बक रे की बलि दी जाती है। बस्तर दशहरा पर्व के लिऐ बनाए जाने वाले विशालकाय दो मंजिले रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी लाने की प्रक्रिया पाटजात्रा विधान के बाद ही शुरू होता है।
डेरी गड़ाई रस्म विधान
पाटजात्रा विधान के बाद बस्तर दशहरे का सबसे महत्वपूर्ण रश्म डेरी गड़ाई विधान होता है। डेरी गड़ाई दूसरी महत्वपूर्ण रस्म है। इस रस्म के बाद ही रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाने के साथ रथ निर्माण का सिलसिला शुरू होता है। इस विधान के तहत बस्तर जिले के ग्राम बिरिंगपाल के जंगल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को सीराभवन में विशेष स्थान पर गाड़कर स्थापित किया जाता है। दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी के अनुसार चूंकि पितृ पक्ष (श्राद्ध पक्ष) में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता, इसलिए बस्तर दशहरा हेतु विशालकाय दोमंजिला रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ करने तथा रियासतकालीन दशहरा के समय से रथ निर्माण के लिए आने वाले ग्रामीण आदिवासी कारीगरों के रहने और ठहरने की व्यवस्था हेतु बनाया जाने वाले आवास के लिए आदिवासी परम्परा के अनुसार निर्मित अस्थाई भवन सिरहासार चौक में बनाया जाता था, जो आज भी जारी है। अस्थाई भवन के लिए साल के पेड़ों की टहनियों को दो नियत स्थानों पर गाडने की प्रक्रिया को डेरी गड़ाई रस्म कहते है जो वर्तमान में बस्तर दशहरा के एक पारंपरिक पूजा-विधान के रूप में आज भी अनवरत जारी है। यह रस्म साल के टहनियों को स्थापित करने से पहले इसके लिए खोदे गये गड्ढे में परंपरानुसार दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी द्वारा पूजा अनुष्ठान संपन्न कर पूजा के उपयोग में लाई जाने वाली सामग्री लाई, अण्डा, जीवित मोंगरी मछली डाल, साल की टहनियों को गाड़ा गया। उल्लेखनीय है कि विश्वविख्यात बस्तर दशहरा के रथ के निर्माण की जवाबदारी वर्षों से बेड़ाउमरगांव एवं झारउमरगांव के बढ़ईयों द्वारा संपन्न कराई जाती है।
साल प्रजाति की दो शाखायुक्त डेरी, स्तभनुमा लकड़ी का लगभग 10 फुट का ऊंचा होता है, जिसे परम्परा के अनुसार दशहरा पर्व के प्रारंभ होने के पूर्व स्थानीय सिहरासार चौक में स्थापित की जाती है। 15 से 20 फीट की दूरियों पर दो गड्ढे किए जाते हैं इन गड्ढों में जनप्रतिनिधियों और दशहरा समिति के सदस्यों की उपस्थिति में पुजारी के दो शाखा युक्त डेरियों में हल्दी, कुमकुम, चंदन का लेप लगाकर दो सफेद कपड़े बांधकर पूजा सम्पन्न करता है। इन गड्ढों पर डेरी स्थापित करने के पूर्व जीवित मोंगरी मछली और अण्डा छोड़ा जाता है, तथा फूला लाई डालकर डेरी स्थापित की जाती है। इस शाखा युक्त डेरी की गड़ाई को एक तरह से मण्डापाच्छादन का स्वरूप माना जाता है। इस डेरी की पूजा-पाठ के साथ स्थापना करके दशहरा पर्व निर्विघ्न सम्पन्न करने की कामना की जाती है। इस डेरी गड़ाई के पश्चात रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है। यह रस्म भादों शुक्लपक्ष द्वादश अथवा तेरस के दिन पूर्ण कर ली जाती है, इस डेरी गडाई के लकड़ी और निर्धारित गांवों से कारीगरों का आना प्रारंभ हो जाता है। डेरी गड़ाई अर्थात स्तम्भारोहण के पश्चात् रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी जाती है।
दशहरा पर्व में विभिन्न रस्मों के दौरान दी जाने वाली मोंगरी मछली की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी रियासत काल से समरथ परिवार को दी गई है। इसी क्रम में डेरी लाने का कार्य बिरिंगपाल के ग्रामीणों के जिम्मे होता है।
काछनगादी विधान
बस्तर दशहरा पर्व का तीसरा महत्वपूर्ण रस्म काछनगादी पूजा विधान होती है। जिसमें जगदलपुर स्थित काछनदेवी मंदिर में नवरात्रि प्रारंभ होने के एक दिन पहले काछनदेवी की विधि-विधान पूर्वक पूजा अर्चना कर बस्तर दशहरा मनाने की अनुमति ली जाती है। इसमें बेल के कांटों से बनी झुला में विधिविधान के साथ काछन देवी को बिठाकर पूजा अर्चना की गई, जिसके बाद काछनदेवी ने दशहरा पर्व मनाने की अनुमति दी।
(बेल के कंाटों में झूलती काछन देवी अनुसूचित जाति की एक नाबालिग कन्या भारी आतिशबाजी और बाजे गाजे के साथ जुलूस राजमहल से काछनगुड़ी तक पहुुंचा जुलूस के सामने आंगादेव की सवारी चल रही थी। जुलूस में बस्तर के सांसद, विधायक, सहित पुजारी व राजगुरू सम्मिलित थे। आदिवासियों की भारी भीड़ जुलूस का स्वागत करने काछनगुड़ी के सामने उपस्थित थी। जहां नौ दिनों से उपवास कर रही नाबालिग बालिका अनुराधा को देवी की सवारी आने पर उसे बेल के कांटों से तैयार झूले पर झुलाया गया। काछन देवी ने राज परिवार के सदस्यों सहित भक्तों को प्रसाद और आशीर्वाद देकर पर्व मनाने की अनुमति दी। इसके पश्चात स्थानीय गोलबाजार में रैला देवी से आर्शीवाद लिया गया, जहां रैला देवी से खुशहाल दशहरा हेतु आर्शीवाद प्राप्त किया गया। काछनदेवी एवं रैलादेवी के द्वारा आर्शीवाद प्राप्त होने के बाद दशहरा पर्व विधिवत प्रारंभ हो जाता है। मान्यतानुसार काछनदेवी एवं रैला देवी द्वारा कुंवारी कन्याओं पर देवी की सवारी आने के उपरांत दशहरा की अनुमति दी जाती है। इसके बाद इन कुंवारी कन्याओं द्वारा नवरात्र के दौरान नौ दिनों तक निर्विध्न दशहरा संपन्न होने की कामना के साथ व्रत रखा जाता है।
जोगी बिठाई रस्म
दशहरा पर्व में बड़े आमाबाल के भरतराम नाग जिसे जोगी नाग भी कहा जाता है, जोगी के रूप में विराजमान हुए। इस दौरान नवरात्रि के 9 दिनों तक जोगी कोई आहार ग्रहण नहीं करते और न ही दैनिक कर्म।
बस्तर दशहरा के महापर्व में जोगी बिठाई रस्म में हर दिन मांई दंतेश्वरी के प्रतीक के रूप मे रखे गए टुरलू लकड़ी व मावली माता के कृपाण की पूजा तो मुख्य रूप से होती ही है लेकिन इसमे एक विधान ऐसा भी है कि स्वर्गवासी हो चुके जोगियों के नाम से भी एक पाटा की स्थापना की जाती है। जिसमें नये वस्त्र लपेटकर उसे देव का रूप दिया जाता है जिसकी पूजा हर दिन पितरों के रूप में की जाती है। पूजा में स्वर्गवासी जोगियों से बस्तर दशहरा निर्विघ्न मनाने व बैठे हुए जोगी को शक्ति प्रदान करने आह्वान कर प्रार्थना की जाती है।
जिस दिन जोगी बिठाई रस्म होता है उसी दिन शुभ मुहूर्त में देवी मंदिरों में मनोकामना दीप प्रज्जवलित किये जाते है। इस बीच शक्तिपीठ दन्तेवाड़ा स्थित मां दन्तेश्वरी के दर्शन के लिए पदयात्रा करते हुए श्रद्धालुजन दंतेवाड़ा पहुंचकर मांई का आर्शीवाद भी प्राप्त करते हैं।
फूल रथ की परिक्रमा
विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा के पावन अवसर पर नवरात्रि के दूसरे दिन से फूल रथ की परिक्रमा की जाती है, विशालकाय रथ को फूलों से सुसज्जित किया जाता है जिसमें मां दंतेश्वेरी का छत्र आरूढ़ किया गया। रथ परिक्रमा का सिलसिला आश्विन शुक्ल सप्तमी तक निरंतर जारी रहता है।
परिक्रमा पश्चात मां दंतेश्वरी का छत्र उतार लिया जाता है, इस फूलरथ की परिक्रमा अश्विन सप्तमी तिथि तक होगा। इस वर्ष 11 अक्टूबर से प्रारंभ हुई फूल रथ की परिक्रमा 16 अक्टूबर तक रोजाना चली। रथ परिक्रमा के दौरान देवी मां के जयकारे गूंजते रहते हैं।
बेल पूजा विधान
विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा के रियासत कालीन परंपरानुसार बेल पूजा विधान एक महत्वपूर्ण रस्म है। इस विधान में नवरात्रि की सप्तमी तिथि को बस्तर राज परिवार के द्वारा ग्राम सरगीपाल में स्थित बेल पेड़ के नीचे बेलदेवी की पूजा के पश्चात जोड़ा बेल फल, विधि-विधान से तोडकर मां दंतेश्वरी मंदिर में लाया जाता है। इस संबंध में राज परिवार के राज गुरू नरेंद्र ठाकुर ने बताया कि बस्तर महाराजा के द्वारा सरगीपाल क्षेत्र में शिकार के दौरान बेल वृक्ष के नीचे महाराजा का छत्र छूट गया था, जिसे लेने के लिए वापस महाराजा पहुंचे थे। तभी एक आकाशवाणी हुई थी कि बेलदेवी ने महाराजा से मिलने के लिए उन्हें पुनरू उस स्थल पर बुलाया था, जिसके बाद राज परिवार के द्वारा अपनी आराध्य देवी दंतेश्वरी के बस्तर दशहरा पर्व में शामिल करने के लिए स्वयं महाराजा बस्तर बेल देवी को लेने ग्राम सरगीपाल उस स्थल पर जाकर पूजा विधान संपन्न कर बेल देवी को बस्तर दशहरा में शामिल करने के लिए किया जाता है। यह परंपरा रियासत कालीन समय से आज पर्यन्त जारी है।
ग्राम सरगीपाल के ग्रामीणों के द्वारा बेल पूजा विधान के तहत लड़की के विवाह के रूप में मनाया जाता है, जिसमें ग्रामीण आपस में एक-दूसरे को हल्दी लगाकर बेल देवी की पूजा के पश्चात जोड़ा में तोडकर विधिविधान से लड़की की विदाई के समान विदा किया जाता है।
निशाजात्रा विधान
बस्तर दशहरा पर्व में नवरात्रि में अष्टमी तिथि की रात निशाजात्रा पूजा विधान सम्पन्न किया जाता है। इस विधान में जगदलपुर के निशा गुड़ी में पूजा अनुष्ठान के बाद राज परिवार की मौजूदगी में बकरों की बलि दी जाती है। बस्तर और देश की खुशहाली की कामना के साथ देवियों को मछली व कुम्हड़ा की भी बलि दी जाती है। निशाजात्रा पर 12 बकरों के अलावा मछली व कुम्हड़ा की बलि देकर अपनी आस्था जताई गई। अष्ठमी तिथि की रात राजपरिवार के कमलचंद भंजदेव, दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी के साथ राजमहल से दंतेश्वरी मंदिर होते हुए पारम्परिक वाद्य यंत्रों मुण्डा बाजा, शहनाई, दीपों की रौशनी और आतिशबाजी के साथ नाचते गाते निशाजात्रा मंदिर पहुंचे हैं। इस दौरान सबसे आगे आंगा देव होते है।
इस दौरान सबसे पहले कांवड़ में जल लेकर आए राउत ने निशागुड़ी में जल चढ़ाया। मंदिर पहुंचकर पुजारियों के सहयोग से भैरमदेव जी की पूजा के बाद मंदिर प्रांगण के हवन स्थल पर 12 बकरों की बलि दी जाती है। इसके बाद मावली मंदिर में दो, सिंहद्योढ़ी और काली मंदिर में एक-एक बकरे की बलि दी जाती है। तत्पश्चात दंतेश्वरी मंदिर में एक काले कबूतर व सात मोंगरी मछलियों तथा श्रीराम मंदिर में उड़द दाल व रखिया कुम्हड़ा की बलि दी जाती है। बस्तर दशहरा का प्रमुख विधान निशा जात्रा पर बकरों की बलि देकर एक के ऊपर एक सात हंडियों में भोजन तैयार कर देर रात निशा जात्रा में अर्पित किया जाता है।
देर रात हुए इस विधान में विशुद्ध रूप से शक्ति पूजा और देवी-देवताओं की संतुष्ट कराने बलिप्रथा का विधान है। मावली मंदिर में 12 गांवों के देवी-देवताओं और उनके गणों के लिए पवित्रता से भोग तैयार किया जाता है, जिसमें चावल, खीर और उड़द की दाल तथा उड़द से बने बड़े बनाकर मिट्टी की खाली 24 हंडियों के मुंह में कपड़े बांधकर रखा जाता है। भोग सामग्री वाली हंडियों को निशागुड़ी तक ले जाने के लिए राऊत जाति के लोगों की कांवड़ यात्रा जनसमूह के साथ जुलूस के रूप पहुंचती। निशागुड़ी में राजपरिवार, राजगुरु और देवी दंतेश्वरी के पुजारी सहित पूजा-अर्चना की गई। पूजा के बाद भोग सामग्री की खाली हंडियों को फोड़ दिया गया ताकि इनका दुरुपयोग न हो।
मावली परघाव तथा भीतर एवं बाहर रैनी विधान
शारदीय नवरात्र की पंचम तिथि पर दंतेवाड़ा शक्तिपीठ में बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव, राजमाता कृष्णाकुमारी देवी, राजकुमारी गायत्री देवी एवं राज पुरोहित समेत मांझी, चालकियों ने मां दंतेश्वरी देवी की पूजा अर्चना की और आशीर्वाद लिया। साथ ही उनकी ओर से 800 साल पुरानी परंपरानुसार मांई दंतेश्वरी को बस्तर दशहरा में शामिल होने का न्यौता भी दिया गया। राज परिवार की ओर से महाराजा कमलचंद्र भंजदेव ने यह न्यौता दिया। रियासत काल से चली आ रही बस्तर दशहरा पर्व की परम्परा को यथावत बनाए रखते हुए पंचमी पर दशहरा पर्व से जुड़े प्रमुख मांझी मुखिया व अन्य दंतेवाड़ा की मांई दंतेश्वेरी को निमंत्रण देने दंतेवाड़ा पहुंचे और मांईजी के लिए तैयार विनय पत्रिका सौंपी गयी। पत्रिका में आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की नवमीं को पूजा के साथ दशहरा मनाने अष्टमी की रात जगदलपुर पहुंचने राजगुरू द्वारा जगत जननी मां दंतेश्वरी देवी से संस्कृत में प्रार्थना की जाती है।
इसके बाद मांई जी की डोली जगलदपुर स्थित जियाडेरा पहुंचती है जिसे नवमीं तिथि की शाम को आतिशबाजी एवं बाजे गाजे के साथ मांई जी की डोली को परघया जाता है, जिसे मावली परघाव कहते हैं। इस दौरान श्रद्वालुओं की भारी भीड़ रहती है। मावली परघाव के बाद मांई जी डोली व छत्र को मंदिर में रखा जाता है।
भीतर रैनी एवं बाहर रैनी
इसके बाद बस्तर दशहरा के मुख्य आकर्षण दुमंजिला रथ की परिक्रमा विजयादशमीं एवं उसके अगले दिन अर्थात एकादशी को किया जाता है। विजयादशमीं के दिन बस्तर दशहरा पर्व में भीतर रैनी विधान होता है। भीतर रैनी में नवनिर्मित विशालकाय दोमंजिला रथ पर मांई जी डोली व छत्र को आरूढ़ कर इसे रथ परिक्रमा स्थल पर रथ की परिक्रमा किया जाता है। रथ को परिक्रमा के बाद दन्तेश्वरी मंदिर के सामने रख दिया जाता है, मध्य रात्रि में इसी रथ को चुराकर कुम्हड़ा कोट ले जाने की परंपरा का निर्वाहन किया जाता है जो आज अर्थात 19 अक्टूबर को सम्पन्न होगा। दूसरे दिन अर्थात एकादशी को बाहर रैनी विधान के तहत चोरी कर ले गए रथ का कुम्हड़ा कोट में विधि-विधान पूर्वक पूजा अर्चना के बाद वापस दंतेश्वरी मंदिर तक लाया जायेगा। जिसके साथ बस्तर दशहरा में रथ संचालन की प्रक्रिया संपन्न हो जाएगी।
भीतर रैनी की रात को विशालकाय रथ चोरी परम्परा के संबंध में कहा जाता है कि प्राचीन समय मे राजधानी बदलती रहती थी, तब बड़े डोंगर केे कुछ विघ्नसंतोषी लोग राजा को परेशान करने के लिए रथ को चुराकर ले गए और जहां कुम्हड़े का बहुत अधिक बेला था वहां पर छिपाकर रख दिए थे, इसे भीतर रैनी कहते है तथा अगले दिन सुबह जब राजा और परिवार के सदस्य रथ को ढुंढते हुए वहां पहुंचे तब विघ्न संतोषी लोग राजा को रथ सौंप दिए।
काछन जात्रा विधान एवं मूरिया दरबार
बाहर रैनी विधान के अगले दिन काछन जात्रा विधान सीरासार भवन में होती है। इस विधान में बस्तर दशहरा मनाने की अनुमति देने व निर्विघ्न दशहरा पर काछन देवी को साभार स्वरूप पूजा अर्चना की जाती है। इसी दिन मूरिया दरबार रस्म भी होता है। प्राचीन समय में मूरिया दरबार में राजा अपनी प्रजा की बात सुनकर उनकी समस्याओं का समाधान करते थे। लेकिन आज मूरिया दरबार में सरकार के मुखिया या मंत्री, सांसद, विधायक, बैठते है जो मांझी, चालकी, कोटवार, मेम्बर, मेम्बरीन आदि के समस्याओं का हर संभव समाधान करते हैं।
कुटुम्ब जात्रा विधान
इसके बाद अगले दिन कुटुम्ब जात्रा विधान के तहत् बस्तर के विभिन्न ग्रामों से बस्तर दशहरा में शामिल होने आए देवी देवताओं की जगदलपुर के महात्मागांधी स्कूल परिसर में विधि-विधान पूर्वक पूजा अर्चना के साथ विदाई किया जाता है।
मांई जी की विदाई
कुटुम्ब जात्रा के अगले दिन दंतेवाड़ा से आए मांई दन्तेश्वरी तथा मावली माता की विदाई जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर के सामने विशेष पूजा अर्चना कर की जाती है, इस अवसर पर भारी संख्या में श्रद्वालु पूजा अर्चना में शामिल होकर मांईजी का आर्शीवाद लेने पहुंचते है, यहां पर पूजा अर्चना के बाद जिया डेरा तक बाजे-गाजे के साथ ही मांई की छत्र व डोली को जियाडेरा तक लाया जाता है। इसके बाद यहां पर पूजा अर्चना के बाद ससम्मान दंतेवाड़ा के लिए विदा कर दिया जाता है। ... और इस तरह मांई जी की दंतेवाड़ा विदाईके साथ 75 दिवसीय विश्व प्रसिद्व बस्तर दशहरा का समापन होता है।
bastar dussehra बस्तर दशहरा
8/15/2018
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