एक स्व र्स्फूत आंदोलन का इतिहास
बस्तर के घने जंगलों और दूर-दराज के गांवों में सलवा जुडूम की यादें आज भी ज़िंदा हैं धुएं, बंदूकों और टूटे रिश्तों के रूप में। 2005 में नक्सलवाद के खिलाफ एक जनआंदोलन के तौर पर शुरू हुआ सलवा जुडूम, सरकार की नजर में एक साहसी पहल थी। लेकिन बस्तर की ज़मीनी हकीकत कुछ और कहती है। यह आंदोलन आदिवासियों को ही आपस में लड़ाने वाला, और उनके भरोसे को तोड़ने वाला बन गया। क्या था सल्वाजुडुम ?
पुलिस का पूरा गुस्सा माओवादियों ने आम ग्रामीणों पर उतारा इन शिविरों में रहने वाले लोग सरकारी समर्थक माने गए, और जो गांव में रह गए, उन्हें अक्सर नक्सल समर्थक कहकर प्रताड़ित किया गया।
जब नक्सली उत्पात हद से ज्यादा हो गया तो बीजापुर के कुटरू से 2005 में इसकी शुरूआत हुई । सल्वा (सल्वा यानि शांति के लिये उपयोग किया गया पानी )जुडुम का शाब्दिक अर्थ गोडी बोली से लिया गया है जिसका मतलब कुछ लोग कहते हैं सभी जुडे़ तो कुछ इसे शांति मार्च भी कहते हैं । सेवा निवृत आईपीएस पल्ला लाल ने अपनी किताब रेड कॉरिडोर (पेज-219)में लिखा है -इस आंदोलन का नाम सलवा जुडुम महेन्द्र कर्मा द्वारा ही किया गया ऐसा कहा जाता है । नक्सलियों का अत्याचार बहुत बढ़ गया था।
वे स्कूल, पाठशाला प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, लोक निर्माण, वन विभाग के कार्यालयों एवं विश्राम गृहों और अन्य शासकीय भवनों को बारूदी सुरंग से नष्ट कर दिया करते थे। उनका कहना था कि सरकार विकास का जो काम कर रही है उससे आदिवासियों क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण हो रहा है।
सेवा निवृत आईपीएस पन्ना लाल ने लिखा है कि जब माओवादियों ने ग्राम स्तर पर वर्षों से चली आ रही उनकी परम्परागत राजनीतिक सामाजिक बनावट और बुनावट को तोड़ना प्रारंभ किया, घोटुल परम्परा पर प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया, और भूमि संबंधी मालिकाना हक को बनदलने की कोशिश की पति-पत्नि के रिश्तो पर भी दखलन्दाजी ठोकना शुरू किया तब आदिवासी समुदाय में घबराहट, बैचनी और नाराजगी पैदा होने लगी। आदिवासी समुदाय को यह अच्छा नहीं लगा कि वे लोगों की मर्जी के खिलाफ अपने दल में शमिल करने के लिए लड़के-लड़कियों, युवक और युवतियों को बाध्य करते हैं।
कई ग्रामों के आदिवासी इकट्ठे होकर जिला -बीजापुर, थाना कुटरू क्षेत्र के ग्राम करकेली में दिनांक 4 6 2005 को एक विशाल जनसभा की जिसका नेतृत्व ग्राम अंबेली निवासी शिक्षक मधुकर राव ने किया । मधुकर राव नक्सलवादियों की हिसंक निरर्थक दिशाहीन एवं नकारात्मक गतिविधियोंको समझते थे उन्होंने नक्सलवादियों के विरूद्ध जनजातियों में असंतोष और आक्रोश को देखते हुए, दक्षिण बस्तर के दर्जनों गा्रमों का भ्रमण किया और एक मजबूत विद्रोही संगठन तैयार किया । उनके साथ सैकड़ों की तादाद में आदिवासी जुड़ गए। और नक्सलवादियों को बस्तर से खाली कराने के लिए निश्चय किया । धीरे-धीरे यह एक जन सैलाब में परिवर्तित हो गया । (नक्सलवाद का लाल गलियारा या द रेड कॉरिडोर पेज.217)
किस प्रकार इसकी प्रगति हुई और फिर यह समाप्त हो गया । जानते हैं ।
यह आंदोलन बस्तर को नक्सलवाद से छुटकारा दिलाने के लिए कृतसंकल्प था। सलवा जुडुम का बढ़ते प्रभाव से माओवादी हतप्रभ रह गए । डॉ पन्ना लाला लिखते हैं -अपनी खिसकती हुई जमीन को बचाने के लिए बड़ी तेजी से (माओवादियों ने )कदम बढ़ाया । पहले तो इन लोगों ने हरावल संगठनों को सक्रिय किया, अपने सूचना तंत्र को दुरूस्त किया और अपने प्रचार माध्यमों को मोर्चा सभांलने के लिए पूरी ताकत झोक दी (नक्सलवाद का लाल गलियारा या द रेड कॉरिडोर पेज.221)
इस आंदोलन का गंभीर सामाजिक परिणाम हुआ। जो आदिवासी सलवा जुडूम में शामिल हुए, उन्होंने अपने ही गांववालों और रिश्तेदारों पर शक के नाम पर हमला करना शुरू कर दिया। गांवों में आपसी विश्वास टूट गया। पड़ोसी दुश्मन बन गए, रिश्तेदारों के बीच खून-खराबा हुआ।
सलवा जुडूम के दौरान हजारों आदिवासियों को कथित रूप से सुरक्षा के नाम पर शिविरों में जबरन रखा गया। ये शिविर असल में नजरबंदी जैसे बन गए, जहां लोग अपनी ज़मीन, घर, और संस्कृति से कट गए।
पूर्व आईपीएस डॉ पन्ना लाला अपनी किताब रेड कॉरिडोर पेज 223 में लिखते हैं । माओवादियों ने सुनियोजित ढंग से सर्वप्रथम विशेष पुलिस अधिकारियों की पहचान स्थापित की । वे किस गाँव से आते हैं, उनकी जानकारी ली । और उन समूहों और नेताओं की पहचान की जो सलवा-जुडूम से जुड़े थे। उन गाँवों को चिन्हित किया जहाँ पर नक्सलियों के विरूद्ध खुली बगावत थी। इसके बाद नक्सदवादियों ने एक गोपनीय नीति के तहत अचानक रात या दिन में किसी समय उन गावों मेें पहुँचकर गा्रमवासियों को प्रताड़ित करना प्रारम्भ किया और उन गाँवों के लोगों की सामूहिक हत्या की, जहाँ के लोग सलवा जुडुम से जुड़े थे। निर्दोष लोगों को पुलिस का मुखबिर मानकर अंग-भंग करना प्रारम्भ किया । इस प्रकार पूरे क्षेत्र में आतंक का ऐसा तांडव शुरू किया पूरा बस्तर -प्रशासन और प्रदेश शासन ही नहीं, देश भी एक बार इन आतंकवादी खैफनाक घटनों से समह गया ।
प्रशासन ने नक्सलवादियों की दमन और अत्याचार की नीति को देखकर सलवा जुडुम से जुडे लगीाग 644 गाँव के लोगों की सुरक्षा हेतु सुरक्ष्ज्ञित स्थानों पर रिलीफ कैंप स्थापित किए । उनके खाने पीने की व्यवस्था की गई। इस तरह पूरे बस्तर संभाग में 17 से 20 कैंप स्थापित किए गए थे। और एक अनुमान के अनुसार लगभग 46 हजार आदिवासियों के आश्रय की व्यवस्था की गई थी।
यह गहरी सामाजिक दरार आज भी कई गांवों में महसूस की जा सकती है।
3200 विशेष पुलिस आधिकारियों की नियुक्ति हुई जिन्हें एसपीओ कहा गया । ये विशेष पुलिस अधिकारी बस्तर के चप्पे चप्पे के जानकार थे। नक्सलियों के गुप्त ठिकानों से वाकिफ थे। ये आदिवासियों के बीच के थे अतः ये सीधे तौर पर नक्सलियों के निशाने पर आ गए। इनके रिश्तेदारों और गांवो को नक्सलियों ने निशाना बनाना शुरू कर दिया।
सेवा निवृत आईपीएस पन्ना लाल लिखते हैं विशेष पुलिस अधिकरियों के लिए कुछ निश्चित योजना के तहत नक्सलवादी आन्दोलनकारियों से मुकाबला करने के लिए विशेष प्रशिक्षण देने के बाद मैदान में उतारना था। उनकी तथा उनके गाँव की पहचान को अतिगोपनीय रखना चाहिए था। वे आगे लिखते हैं पुलिस को सर्वप्रथम उन प्रमुख स्थानों को चिन्हित करना चाहिए जहाँ पर माओवादी पनाह लेते हैं परन्तु यह कार्य बस्तर जैसे विशाल पहाउ़ों और घने जंगलों से अच्छादित संभाग में कठिन है।
दूसरी कठिनाई यह है कि यहाँ गाँव के नाम पर छोटी छोटी मड़ईयों का समूह है। और दूर -दूर छिटके बसे हुए हैं इस प्रकार के कई बसाहटों को मिलाकर गाँव का नाम दे दिया गया है जहां पर माओवादी एक एक की संख्या में मेहमानों की तरह रहते हैं आदिवासियों की भाषा और भाषा और वेश-भूषा को धारण कर लेते हैं और समान्य जनजातियों की तरह रने लगते हैं । आदिवासी भी भय के कारण न तो उनको मना कर सकते हैं और न ही उनके सम्बन्ध में किसी को सूचना दे सकते हैं । कई बार यही ग्राम वासी माओवादियों की सूचनातंत्र के रूप में काम करते हैं। (पेज 232-33 -नक्सलवाद का लाल गलियारा, द रेड कोरिडोर)
इस प्रकार बस्तर में आदिवासी दो धारी तलवार के बीच रह रहे थे। उनका कहना था-हम किस पर भरोसा करें? जुडूम से डर था, नक्सलियों से भी। बचने के लिए घर छोड़ना पड़ा।
जब हथियार थमा दिए गए युवाओं को
सरकार ने कई आदिवासी युवाओं को बिना उचित प्रशिक्षण के हथियार दे दिए। इससे एक नया और खतरनाक सैन्य समाज बन गया। कुछ को बाद में डिस्ट्रीक्ट रिजर्व गार्ड यानि डीआरजी में भर्ती किया गया, लेकिन बहुत से युवा हिंसा और बदले की भावना में फंस गए।
शिक्षा और रोज़गार की जगह बंदूकें मिलीं। यही युवा अब तक मानसिक और सामाजिक दबाव में जी रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का आदेश और राजनैतिक चुप्पी 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक घोषित किया, और सरकार को ऐसे सशस्त्र नागरिक बलों को तुरंत भंग करने का आदेश दिया। अदालत ने इसे मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन बताया।
इसके बावजूद, राज्य के नेताओं की ओर से अब तक कोई आत्ममंथन नहीं हुआ।
बस्तर को क्या चाहिए अब?
सलवा जुडूम भले ही अब खत्म हो गया हो, लेकिन उसके घाव आज भी ताज़ा हैं। गांवों में आपसी अविश्वास है, विस्थापित अब भी लौट नहीं पाए हैं, और लोग आज भी डर के साए में जीते हैं।
बस्तर को अब ज़रूरत है सच, न्याय और मेल-मिलाप की। ज़रूरत है कि सरकार आदिवासियों की आवाज़ सुने और उनके घावों को भरेकृना कि केवल सैन्य समाधान दे। सलवा जुडूम सिर्फ एक सुरक्षा नीति नहीं थी, यह बस्तर के सामाजिक ताने-बाने पर हमला था। अब वक्त है उसे समझने, स्वीकारने और सुधारने का।
सलवा जुडूम और जिला रिजर्व गार्ड (डीआरजी)
सलवा जुडुम को 2011 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे अवैध घोषित किए जाने के बाद, डीआरजी (जिला रिजर्व गार्ड) एक राज्य पुलिस बल इकाई के रूप में उभरा, जिसमें फिर से बड़े पैमाने पर स्थानीय आदिवासी युवा शामिल थे।
दोनों का उद्देश्य स्थानीय लोगों को स्थानीय लोगों के खिलाफ इस्तेमाल करना है, उनके इलाके के ज्ञान और माओवादियों को पहचानने की क्षमता पर भरोसा करना।
हालांकि सलवा जुडूम को खत्म कर दिया गया था, लेकिन माओवाद से लड़ने के लिए स्थानीय आदिवासी रंगरूटों का इस्तेमाल करने का तर्क बरकरार रहा और इसे डीआरजी के तहत औपचारिक रूप दिया गया।
वही रंगरूट, अलग वर्दी
सलवा जुडूम के भंग होने के बाद, कई पूर्व एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) और जुडूम सदस्यों को डीआरजी में शामिल कर लिया गया।डीआरजी का गठन सलवा जुडूम द्वारा अनौपचारिक रूप से किए गए कार्यों को कानूनी सुरक्षा और औपचारिक मान्यता देने के लिए किया गया था।डीआरजी के जवान अब नियमित पुलिस कर्मचारी हैं - लेकिन उनमें से कई वही युवा हैं जो कभी जुडूम का हिस्सा थे या आत्मसमर्पित माओवादी थे।
आदिवासी युवाओं का सैन्यीकरण जारी है
सलवा जुडूम और डीआरजी दोनों ही आदिवासी युवाओं को शिक्षा, कृषि और विकास से दूर करते रहे, इसके बजाय उन्हें राज्य के नेतृत्व वाले सैन्यीकरण की ओर खींच रहे हैं।
सरकार का दावा है कि वे नौकरियाँ पैदा कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में, ये उच्च जोखिम वाली, कम सुरक्षा वाली लड़ाकू भूमिकाएँ हैं जिनमें मानसिक और सामाजिक तनाव होता है।
सलवा जुडूम पर बच्चों और किशोरों को हथियार देकर एक पीढ़ी को बर्बाद करने का आरोप लगाया गया था। डीआरजी ने इस चक्र को और अधिक आधिकारिक रूप में जारी रखा है।
जुडूम का कानूनी चेहरा है डीआरजी
डीआरजी को एक आधुनिक, संवैधानिक बल के रूप में पेश किया जाता है - लेकिन इसकी रणनीति (रात में छापे, फर्जी मुठभेड़, गांवों में भय) जुडूम अवधि के दौरान देखी गई रणनीति के समान ही बताई जाती है।मानवाधिकार समूहों ने कथित दुर्व्यवहार, न्यायेतर हत्याओं और आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को स्काउट के रूप में इस्तेमाल करने के लिए डीआरजी की आलोचना की है।
राजनीतिक और कानूनी बदलाव
सलवा जुडूम कानूनी ढांचे से बाहर संचालित हुआ, जिससे वैश्विक आक्रोश और अदालती जांच हुई। डीआरजी का गठन पुलिस अधिनियम के कानूनी प्रावधानों के तहत किया गया था - वही रणनीति, अब साफ-सुथरी और राज्य-स्वीकृत।
सलवा जुडूम = अनौपचारिक मिलिशिया(2005-2011)
डीआरजी = औपचारिक, वेतनभोगी पुलिस बल (2012 के बाद)
सलवा जुडूम: बस्तर की आदिवासी एकता पर प्रहार
6/03/2025
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