बारसूर में बत्तीसा मंदिर के समकालीन सोलह स्तम्भों वाला एक मंदिर है जो साधारण से टीले के उपर निर्मित है। यह मंदिर वर्तमान में ध्वस्त हो चुका है। इस मंदिर का गर्भगृह भी पूर्णतया नष्ट हो चुका है। यदि इस मंदिर की कल्पना करें तो मालूम होता है कि यह मंदिर अपने जमाने में काफी भव्य रहा होगा। आज भी भले ही मंदिर ध्वस्त हो गया हो किन्तु कुछ पाषाणीय स्तम्भ आज भी सुरक्षित है। बत्तीसा मंदिर के समकालीन होने से ऐसा प्रतीत होता है कि सोलह स्तम्भों से निर्मित यह मंदिर भी भगवान शिव को समर्पित रहा होगा। अनुमानतः चार-चार की संख्या वाले दो कतार में तथा दूसरी ओर भी आठ स्तम्भ निर्माण किये गये हैं ऐसा प्रतीत होता है। ध्वस्त गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर गणेश जी की प्रतिमा है। स्थानीय लोगों का मानना है जिस तरह बत्तीस स्तम्भों तथा सोलह पाषाणीय स्तम्भों से निर्मित मंदिर थे, उसी तरह भगवान शिव को समर्पित आठ स्तम्भों वाले मंदिर का भी अस्तित्व था किन्तु देखरेख के अभाव में वह पूरी तरह नष्ट हो गया। बारसूर के संबंध में आज भी ऐसे मिथक व जनश्रुति कहने-सुनने को मिल जाती है अर्थात् जितने लोग, उतनी बातें। यही नहीं ऐसे ऐतिहासिक महत्व के नगर के समीप ऐसे गांव भी मिल जायेगें जहां प्राचीन मंदिरों के प्रतिमाओं को देवगुड़ी अथवा ग्रामीणों ने वर्षों से सहेज कर रखा है।
बारसूर को आज भी पूर्णतया बूझने की आवश्यकता है। कोशिश तो यह भी होना चाहिए कि भग्नावशेष हुए मंदिरों को पुनः संजोया जाना चाहिए। बारसूर स्थित बत्तीसा मंदिर कभी ध्वस्त हो गया था किन्तु उसे शासन की मदद से जीणोद्धार वर्ष 2000 में किया गया। इसी तरह बारसूर के सभी ध्वस्त मंदिरों को पुनः सहेजा जाना चाहिए। कहा जाता है कि बारसूर में नागवंश के शासन काल में अनेक मंदिरों के निर्माण किये जाने का अभिलेखकीय प्रमाण मिलते हैं।
सामन्ती सरदार चंद्रादित्य का शिव मंदिर
बारसूर स्थित चंद्रादित्य मंदिर का निर्माण 11 वीं शताब्दी में एक सामंती सरदार चंद्रादित्य के द्वारा करवाया गया था। यही कारण है कि इसे चंद्रादित्य मंदिर कहा जाता है। मंदिर के समीप ही चंद्रादित्य के नाम से एक तालाब भी है। इस संबंध में 1060 का एक अभिलेख प्राप्त होता है जिसमें उस दौर के नागशासक जगदेक भूषण धारावर्ष से संबंधित है।
तब जगदेक भूषण की राजधानी बारसूर में थी। यह भी कहा जाता है कि चंद्रादित्य नामक सामंत ने अपने राजा धारावर्ष से यह ग्राम खरीद कर मंदिर तथा तालाब का निर्माण करवाया था। तालाब के मध्य भगवान शंकर की मंदिर बनवा कर प्रतिमा स्थापित किया था। यह एक हिंदू मंदिर है तथा भगवान शिव को समर्पित है।
आज यह मंदिर भग्नावशेष के रुप में तालाब के किनारे स्थित है। यह मंदिर प्रतिमाओं को लेकर कभी भव्य था किन्तु आज नहीं है। इस मंदिर के दीवारों पर मिथुन प्रतिमाएं अंकित थी किन्तु कालान्तर में उन प्रतिमाओं का क्या हुआ, कोई नहीं जानता। दीवारों पर जड़े मिथुन प्रतिमाओं में नारी, अप्सरा, चामुण्डा, नायिका, नर्तकी आदि की बहुतायत में थी। यहां के मंदिर में अनेकों मिथुन मूर्तियों का होना, जिनका दर्शन परलौकिक है। यहां इस प्रकार की मूर्तियों का अंकन है, जो हिंदूधर्म और संस्कृति में मान्य स्वर्ग-नर्क की कल कल्पना को मूर्त रुप प्रदान करती है। संपूर्ण भारत में इस दौर में ऐसी मूर्तियों का अंकन कोई आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है। इस समय तक योगिनी संप्रदाय का वर्चस्व था।
इससे वाममार्गी विचारों का प्रभाव पड़ा, उनकी मान्यता थी कि जीवन का क्रम शाश्वत रुप में चलता है। भौतिक जीवन का नाश होता है। शिव-शक्ति का मिलन ही जीवन का उद्धेश्य है। उसी आध्यात्मिक मिलन का सांसारिक रुप मैथुन है। इसी दर्शन से प्रेरित होकर नागवंश के शासकों ने चक्रकोट के बारसूर में इस प्रकार की मूर्तियों का निर्माण करवाया। आज एक हजार वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो चुका है किन्तु वास्तव में बारसूर बस्तर का खजुराहोहै। मंदिर की बाहरी दीवार पर ब्रम्हा की एक छवि है। मंदिर में अनेक शैव प्रतिमाएं यथा भैरवी, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, भैरव, शिव आदि हैं तथा वैष्णव प्रतिमाओं में विष्णु, नरसिंह, कल्कि, वाराही, अष्टदिक्पाल, बसु हैं। वहीं नाग-नागिन, हनुमान, सूर्य देवता की प्रतिमाएं भी हैं।
स्थानीय लोगों का कहना है कि उन मिथुन प्रतिमाओं का निर्माण भले ही किसी मकसद के लिए किया गया हो किन्तु स्थानीय बच्चों पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा था, यही कारण है कि स्थानीय लोगों ने ही दीवारों पर उत्कीर्ण मूर्तियां निकाल कर फेंक दिया, यह संभावना जताई जाती है।
सोलह स्तम्भों वाला शिवमंदिर
8/03/2025
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